Home > संग्रह > अहिंसा एक दृष्टि

अहिंसा एक दृष्टि

()
1,407

अहिंसा, आत्मा का विषय है और शिक्षा व्यक्ति को आत्मा से दूर ही रखती है। आज का शिक्षित ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को समझ ही नहीं सकता। हर शिक्षित व्यक्ति का एक ही सपना है-अच्छा पैकेज।

हिंसा या अहिंसा के बीज मन में संस्कारों से ही पलते हैं। अहिंसा को समझना आत्मा को समझना है। बरसों से अहिंसा के बारे में कहते-सुनते इस शब्द की गंभीरता ही कम हो गई। आज तो हिंसा, सूर्य की तरह चमक रही है और अहिंसा, एक दीपक मात्र रह गया। वह भी किसी-किसी के घर में ही जलता है। देखा जाए तो शरीर, मन और बुद्धि की हिंसा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी को मार देना हिंसक वृत्ति का परिणाम है। हिंसा को यहां तक पहुंचने में कई वर्ष लग जाते हैं। इनको पेड़ बनकर फल देने में कई वर्ष लग जाते हैं। शारीरिक हत्या तो फल है। हम पेड़ को खाद-पानी देते रहेंगे, तो फल तो आना ही है। खाद-पानी कई प्रकार के होते हैं। जैसे-शिक्षा, तकनीकी विकास, वातावरण का अभाव, हमारा इतिहास-भूगोल से कट जाना आदि।

अहिंसा, आत्मा का विषय है और शिक्षा व्यक्ति को आत्मा से दूर ही रखती है। आज का शिक्षित ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को समझ ही नहीं सकता। हर शिक्षित व्यक्ति का एक ही सपना है-अच्छा पैकेज। पेट से बंध गया है उसका जीवन। वह किसी अन्य की चिन्ता कर ही नहीं पाता। स्वयं की असुरक्षा भी हिंसा का कारण है और अति सुरक्षा भी। विज्ञान दूसरा बड़ा कारण है हिंसा का। तकनीक ने व्यक्ति को अकेला जीना सिखा दिया। इंटरनेट, टीवी, मोबाइल फोन जैसे उपकरणों ने घरों तक को बिखेर दिया। रेडियो खो गया। टीवी ने व्यक्ति को घर के खूंटे से बांध दिया। इंटरनेट ने कमरे को ही घर बना दिया। अब मेरा फोन-मेरा घर। अब वह अपने स्वार्थ के आगे किसी की चिन्ता नहीं करता। घर में लोग साथ तो रहते हैं, किन्तु अपने-अपने फोन के साथ। तब समाज और देश उसके जीवन में कैसे जुड़ें? इसी प्रकार विज्ञान की खोज, सारे आविष्कार उपकरणों पर आधारित हैं। इसके परिणाम उपयोग करने वालों पर निर्भर करेंगे। अणु ऊर्जा से विद्युत् बनेगी या अणु बम? किसी तीसरे व्यक्ति को अणुबम का बटन दबाने में सोचना नहीं पड़ेगा। कोई किसी से जुड़ा हुआ ही नहीं है। जबकि अहिंसा का आधार मानवीय धरातल है।

वैसे शुद्ध अहिंसा का जीवन तो प्रकृति में संभव भी नहीं है। शास्त्र कहते हैं-‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ अत: अहिंसा भी सापेक्ष हो सकती है। इसका एक मार्ग है कि मैं स्वयं के सुख के लिए किसी अन्य को कष्ट न पहुंचाऊं। ‘अन्य’ की परिभाषा जो हर धर्म में है, उसमें तो यह शरीर अरबों-खरबों कोशिकाओं से बना है। प्रत्येक कोशिका एक स्वतंत्र जीव है। इनका पोषण हमारी स्थूल बुद्धि मात्र से नहीं हो सकता। इसमें भावों की प्रमुखता महत्त्वपूर्ण है। यह भाव ही हिंसा और अहिंसा के वाहक हैं।

आज हम अहिंसा की परिभाषा भूल बैठे। बच्चों को हिंसा के स्वरूप बताते हुए ये निर्देश देते हैं कि इन सबसे बचना अहिंसा है। सही अर्थों में ऐसा करके बच्चों को हिंसा में पारंगत ही किया जा रहा है। हिंसा हो या अहिंसा दोनों के बीज भीतर ही होते हैं। हम जिन भावों को नित्य सींचते हैं, वे ही पेड़ बन जाते हैं। मन को आवृत्त कर लेते हैं। जैसे ही बाहर कोई निमित्त सम्पर्क में आता है, मन कमजोर पड़ जाता है। भावों की आक्रामकता प्रकट हो जाती है। आज हर तरफ यही हो रहा है। भीतर हम भोगों के वृक्षों को खाद-पानी देते हैं और बाहर योग की चर्चा भी करते हैं। सुबह कोई सत्संग में बैठा है और शाम को मित्रों के साथ जुआ खेलेगा और मद्यपान करेगा तो फिर हिंसा के आक्रमण को कैसे रोक पाएगा? वस्तुत: अहिंसा एक दृष्टि है, जो पढ़ाई नहीं जा सकती। यह सद्पुरुषों की संगत से ही सीखी जा सकती है। आत्मा के पाठ पढ़ाए नहीं जा सकते।

जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए जीएगा, अपनी सुरक्षा खोजता रहेगा, अपने मोबाइल से बाहर नहीं जुड़ेगा, वह देना ही नहीं सीख पाएगा। लेने का भाव ही हिंसा है। देने के भाव में ही अहिंसा के बीज रहते हैं। व्यापार में भी स्पर्धा का मूल कारण यही है। व्यक्ति दूसरों का छीनकर खुद खा जाना चाहता है। उसको लगता है कि मेरा सारा नुकसान प्रतिस्पर्धी के कारण हो रहा है। मिटा दो उसको! जैसे व्यक्ति किसी का भाग्य बदल सकता हो। व्यवहार में इस प्रकार के कई कारण सामने आते हैं, हिंसक प्रवृत्तियों के पीछे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका स्वरूप सबके सामने है। प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है? जो कल था, आज भी है और कल भी रहेगा, वह सत्य है। बाकी सब झूठ है। झूठ ही सत्य की हिंसा है। इसीलिए आदि शंकराचार्य जी लिख गए -ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या। आत्मा सत्य है, शरीर मिथ्या (नश्वर) है। ‘मैं आत्मा हूं, शरीर मेरा है।’ भारत की संस्कृति आत्मा पर आधारित है और विज्ञान की संस्कृति शरीर पर आधारित। आज शिक्षा पेट से जुड़कर जीवन से बाहर निकल गई। शिक्षा में शरीर और बुद्धि का क्षेत्र रह गया है। मन और आत्मा बाहर निकल गए हैं। यह शिक्षा पूर्ण व्यक्ति को अपूर्ण बनाती है। अपूर्णता हिंसा है, झूठ है, पूर्णता सत्य है, अहिंसा है।

How useful was this post?

Click on a star to rate it!

Average rating / 5. Vote count:

No votes so far! Be the first to rate this post.

Leave a Reply

error: Content is protected !!